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राजस्थान के शोध संस्थान एवं संग्रहालय , भाग : 1

                  राजस्थान के शोध संस्थान एवं संग्रहालय 



1. केन्द्रीय संग्रहालय ( एल्बर्ट हॉल म्यूजियम ), जयपुर 


एल्बर्ट हॉल म्यूजियम की शुरुआत महाराजा रामसिंह द्वितीय के शासनकाल में 1876 में प्रिन्स एल्बर्ट द्वारा की गयी थी।  इसे राजस्थान का प्रथम संग्रहालय कहा जाता है।  इसे एडवर्ड बेडफोर्ड ने जनता के लिये 1886 ई. में खोला था।  शुरुआती दौर में यह म्युजियम शौक्षणिक संस्था के रुप में अस्तित्व में आया था, जिसमें कई देशों से इतिहास , भू - गर्भशास्त्र , अर्थशास्त्र , कला कौशल आदि विषयों पर आधारित साम्रगी मंगवायी थी।


   इसे केन्द्रीय संग्रहालय का रुप स्वतंत्रता के बाद दिया गया था। इस संग्रहालय में मिस्र की प्राचीनकालीन ' ममी ' रखी हुई है जो अद्भूत है। यह राज्य का 125 साल पुराना व सबसे बड़ा संग्रहालय होने के कारण यह राजस्थान की प्राचीन कला औए वास्तुशिल्प की कथा व्यक्त करता है । यह संग्रहालय होने के साथ ही मान्यूमेंट होने के कारण विजिटर्स के लिये आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इस संग्रहालय के अन्दर सन् 1506 से लेकर 1922 तक के राजाओ के चित्र के साथ ही राज्य चिन्ह भी बने हुये है । 


ममी -

राजस्थान पुरातत्व विभाग के निदेशक रहे बी. एल. गुप्ता के अनुसार यह ममी सन् 1883 में एक विश्व स्तरीय प्रदर्शनी के दौरान मिस्र से मंगवाई गयी थी जो वर्तमान में एल्बर्ट हॉल म्यूजियम का आकर्षण का केन्द्र है। यह ममी मिस्र के पैनोपोलिस से जयपुर लायी गयी थी।  


322 - 30 ई. पूर्व के टोलोमाइक युग की इस ममी को कई प्रकार के रसायनो के साथ कई प्रकार के उपकरणों से संभाल के रखा गया। मि. गुप्ता के कथनानुसार ममी बनाने की प्र्क्रीया 3000 ई. पू. से शुरु हुई और ईस्वी संवत् के शुरुआत तक रही थी। जयपुर लायी गयी ममी एक 55 साल की महिला ' तुतु ' की है जो खेम नामक देवता के उपासक पुरोहितों के परिवार की सदस्य थी ये ममी सबसे उच्च स्तर की ममी थी। 


    मिस्र में आत्मा को ' का ' तथा शरीर को ' खंत ' तथा कौफीन के उपरलिखे जाने वाले व्यक्ति के नाम को ' बा ' कहते है।  मिस्र में यह मान्यता है कि वे कौफीन के उपर भोजन आदि चढ़ाते है ताकि सुरक्षित रखे ' खंत ' में ' बा ' की पहचान से ' का ' का प्रवेश करे और उसका पुर्नजन्म हो सके।  भारत में कई जगह पर ममी है जैसै जयपुर , हैदराबाद , मुम्बई , बडौदा , कोलकाता तथा लखनऊ।  



2. राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग (1950 ई. )-


       राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग की स्थापना 1950 में की गयी थी।  विभाग द्वारा अब तक 222 स्मारक तथा पुरातत्व स्थल संरक्षित घोषित किये गये है। राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग चित्रकला प्रदर्शनी , पुरा साम्रगी प्रदर्शनी का भी आयोजन करता है।  विभाग अपनी पत्रिका  ' द रिसर्चर ' के नाम से प्रकाशित करता है। 

 
3. राजस्थान राज्य अभिलेखागार , ( बीकानेर )-


  राजस्थान राज्य अभिलेखागार की स्थापना 1955 ई. में की गयी थी। इस संस्था का प्रमुख उद्देश्य इतिहास की लिखित साम्रगी को संरक्षित करना था। इस विभाग की 6 शाखाएं है जो इस प्रकार है जयपुर , कोटा , उदयपुर, अलवर , भरतपुर एवं अजमेर में स्थित है।


 इस संग्रहालय के अन्दर प्रशासनिक , सामाजिक , धार्मिक , एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तथा दुर्लभ साम्रगी संग्रहित है। ये अनुमान लगाया जाता है कि बीकानेर संग्रहालय में स्थित दस्तावेजों को धरती पर फैलाया जाये तो उनकी लम्बाई 5 लाख फुट होगी। इस अभिलेखागार में क़ोटा रियासत का 300 साल पुराना अभिलेख मौजूद जो राजस्थान की सबसे कठिन माने जाने वाली हड़ौती भाषा में लिखा हुआ है। 


4. प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर -


     इस संस्था की स्थापना 4955 ई. में की गयी थी। इस संस्था के अन्दर असंख्य पाण्डुलिपियॉं संस्कृत , प्राकृत , अपभ्रंश , पाली तथा विभिन्न राजस्थानी भाषाओं में लिखी गयी है।  इस प्रतिष्ठान में धर्मशास्त्र , पुराण , वेद , ज्योतिष , दर्शन , गणित ,काव्य , आयुर्वेद , इतिहास , आगम , तंत्र , मंत्र व्याकरण आदि की पाण्डुलिपियॉं का लेखन अलंकरण तथा चित्रण करवाकर व्यक्तिगत संग्रह में संरक्षण की परम्परा पिता से पुत्र को विरासत में मिलती रही और समृध्द होती रही। पाण्डुलिपियों का यह संग्रह ' पोथी खाना ' कहा जाता है

  

       प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान नियमित तौर पर पाण्डुलिपियों का संपादन तथा प्रकाशन  ' राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला श्रंखला ' के तहत करता है। इस कडी में इस संस्था ने 155 हस्तलिखित ग्रंथो का संपादन एवं प्रकाशन किया है।  इस संस्था का ' राजस्थानी भाषा के शब्द कोश ' का प्रकाशन उल्लेखनीय है। 


                    प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर की निम्नलिखित उप शाखाएं है



1. जोधपुर मुख्यालय


इस संग्रहालय में राजस्थानी भाषा से संबंधित गुटके , वेलि , बात, प्रेमाख्यान , मीरां की पदावली , नरसी रो मायरो , आदि महत्वपुर्ण राजस्थानी ग्रंथ मौजुद है।  


2. बीकानेर शाखा


इस शाखा में ग्रंथों की संख्या 19839 है। बीकानेर संग्रहालय जोधपुर के बाद दुसरा बडा संग्रहालय है। इस संग्रहालय के अन्दर ' मोतीचंद खजॉंची संग्रह ' तथा ' जिनचंद्र सूरि संग्रह ' जैसै महत्वपूर्ण ग्रंथ मौजूद है।  


3. चित्तोड़ शाखा-


 इस शाखा का निर्माण वर्ष 1962-63 में मूनि जिन विजय के प्रयासों के कारण हुआ था।  इस शाखा के अन्दर ज्योतिष , साहित्य , भक्ति तथा जैन धर्म के लगभग 5426 ग्रंथो का भण्डार है।  


4. जयपुर शाखा -


 इस शाखा के अन्दर लगभग 12000 ग्रंथो का भण्डार है।  इन ग्रंथो में कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ निम्न है कृष्ण भट्ट का ' ईश्वर विलास महाकाव्य ', जयदेव का ' घटकर्पूर महाकाव्य ' , आदि महत्वपूर्ण ग्रंथ है।  


5. अलवर शाखा -


 इस शाखा का प्रारम्भ 1840 ई. में अलवर के महाराजा विनयसिंह के आश्रय में हुआ था।  इस शाखा के अन्दर हमें वैदिक एवं दर्शन साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथ मिलेंगे जो कि उल्लेखनीय ग्रंथ है।  ऋग्वेद की अब तक अज्ञात आश्वलायन तथा शांखायन संहिता पाठ , गृह्यसूत्र की टीका , न्याय एवं मीमांसा के ग्रंथ इस केन्द्र की महत्वपूर्ण उपलब्धियॉं है।  


6. कोटा शाखा - 


कोटा शाखा का निर्माण कोटा राज्य के ' सरस्वती पुस्तकालय ' तथा झालावाड़ राज्य के पुस्तकालयों से प्राप्त पाण्डुलिपियों के स्थानांतरण के कारण हुआ था।  


7. उदयपुर शाखा - 


इस शाखा का प्रारम्भ उदयपुर राजमहल के सरस्वती भण्डार के ग्रंथो के स्थानांतरण के कारण सन्1961 - 62 में हुआ था।  

इस संग्रहालय के अन्दर जीवाधर कृत अमरसार , रधुनाथ कृत जगतसिंह काव्य , रणछोड़ भट्ट के अमरकाव्य तथा राजप्रशस्ति साहित्यिक एवं एतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण ग्रंथ है।  


5. अरबी - फारसी शोध संस्थान ( टोंक ) -


यह संग्रहालय अरबी फारसी भाषा की पुस्तकों का दुर्लभ संग्रह है।  1887 ई में टोंक के तीसरे नवाब मोहम्मद अली खॉं ने खाडी देशों के विद्वान बुलाकर धार्मिक एवं ऐतिहासिक पुस्तकों का लेखन एवं अनुवादन करवाया था।


 राजस्थान सरकार ने 1978 ई. में इन पुस्तकों के संरक्षण के लिये अरबी - फारसी शोध संस्थान की स्थापना की।  इन ग्रंथो में महत्वपूर्ण ग्रंथ औरंगजेब कृत आलमगीरी कुरान तथा शाहजहॉं द्वारा लिखवायी गयी ' कुराने कमाल ' है। 


6.नगरश्री लोक संस्कृति शोध संस्थान ,( चुरु ) -

नगरश्री लोक संस्कृति शोध संस्थान , चुरु की स्थापना विक्रम संवत् 2021 (1964 ई. ) में हुई थी। इस संस्था के संस्थापक श्री सुबोध कुमार अग्रवाल ने अपने अनुज श्री गोविंद अग्रवाल के सहयोग से शेखावाटी तथा बीकानेर जिलों के लोक जीवन से जुड़े विभिन्न प्रसंगो को एकत्र किया।

 आज इस संस्था के अन्दर लगभग 1500 छोटे - बडे छाया चित्र लगे हुये है।  वर्तमान काल में इस संस्था द्वारा ' राजस्थानी लोक कथा कोष ' नामक प्रकाशन का कार्य किया जा रहा है।

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